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एब्स्ट्रैक्ट:इमेज कॉपीरइटNASAनासा के मून मिशन को मंज़ूरी देने वाले अमरीकी राष्ट्रपति जॉन एफ केनेडी थे. लेकिन, वो
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नासा के मून मिशन को मंज़ूरी देने वाले अमरीकी राष्ट्रपति जॉन एफ केनेडी थे. लेकिन, वो स्पेस मिशन को लेकर बहुत उत्साहित नहीं थे.
1962 में जब केनेडी, नासा के उस वक़्त के प्रमुख जेम्स वेब से मिले तो, उन्होंने वेब से कहा था, “अंतरिक्ष में मेरी ज़रा भी दिलचस्पी नहीं है. मुझे लगता है कि ये अच्छी बात है.”
“मुझे लगता है कि हमें अंतरिक्ष के बारे में जानना चाहिए. हम इसके लिए कुछ रक़म ख़र्च करने के लिए भी तैयार हैं. लेकिन, आप इसके लिए जितने पैसे मांग रहे हैं, उससे तो हमारा बजट ही तबाह हो जाएगा.”
केनेडी और नासा के चीफ़ के बीच का ये संवाद, जॉन एफ केनेडी प्रेसिडेंशियल लाइब्रेरी यानी केनेडी के राष्ट्रपति पद के कार्यकाल के दस्तावेज़ों की लाइब्रेरी ने जारी किए हैं. इस बातचीत में चांद पर पहुंचने के पीछे केनेडी का असल इरादा साफ़ हो जाता है.
केनेडी ने जेम्स वेब से आगे कहा था, “मेरे ख़्याल से हम इस कार्यक्रम को ऐसे समयबद्ध तरीक़े से बनाएं कि हम उन्हें हरा सकें. हम उन्हें दिखा सकें कि हम अंतरिक्ष के मोर्चे पर उनसे कई साल पीछे होने के बावजूद उन्हें हरा सकते हैं.”
यानी केनेडी ने जब नासा को मून मिशन पर जाने की हरी झंडी दी, तो उनका मक़सद इस क्षेत्र में सोवियत संघ को पछाड़ना था.
लेकिन, अमरीका को ये रेस जीतना बड़ा महंगा पड़ा था.
अपोलो मिशन की कुल अनुमानित लागत उस वक़्त क़रीब 25 अरब डॉलर आंकी गई थी. आज के हिसाब से ये रक़म क़रीब 175 अरब डॉलर बैठती है. 1965 में अमरीका के कुल बजट में नासा की हिस्सेदारी 5 फ़ीसदी थी. आज ये केवल आधा प्रतिशत है.
वो अरबों डॉलर अमरीका ने रॉकेट, अंतरिक्ष यान, कंप्यूटर, मिशन कंट्रोल रूम और चार लाख लोगों को तनख़्वाहें देने में ख़र्च की थी. और, इतने में केवल 12 लोग चांद पर ले जाए जा सके.
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इमेज कॉपीरइटGetty Imagesक्या इतना ख़र्च वाजिब था?
चांद पर इंसान को भेजने के लिए नासा ने जो पैसे ख़र्च किए, क्या वो वाजिब थे? अमरीकी नागरिकों का इस सवाल पर जवाब ना में था. ये बात हम 1967 में हुए सर्वे के हवाले से कह रहे हैं.
अमरीका की राजधानी वॉशिंगटन स्थित नेशनल एयर एंड स्पेस म्यूज़ियम के रोजर लॉनियस ने ये आंकड़े जुटाए हैं. जिन्हें स्पेस पॉलिसी जर्नल नाम की पत्रिका में प्रकाशित किया गया था. इसके मुताबिक़ अमरीकी जनता का मानना था कि उनके देश की प्राथमिकता अंतरिक्ष की रेस में भाग लेना नहीं होनी चाहिए.
1961 में जब सोवियत संघ स्पेस रेस में अमरीका से बहुत आगे था, तब भी अमरीकी जनता को अंतरिक्ष के मिशन में इतना पैसा ख़र्च करने में दिलचस्पी नहीं थी.
1961 के जून महीने में हुए सर्वे में आधे अमरीकियों ने सोवियत संघ को हराने के लिए मून मिशन का समर्थन किया था, तो आधे लोगों ने इसे बेकार का ख़र्च बताया था. जनवरी 1967 में अपोलो 1 हादसे में तीन अंतरिक्ष यात्रियों के मारे जाने के बाद तो आधे से ज़्यादा अमरीकी मून मिशन के ख़िलाफ़ हो गए थे.
1969 में इंसान के चांद पर पहुंचने में क़ामयाब होने के बाद जाकर आम अमरीकी नागरिकों के बीच अपोलो मिशन का समर्थन बढ़ा. हालांकि 9 महीने बाद जब अपोलो 13 हादसे का शिकार हुआ, तो एक बार फिर से अमरीकी जनमत इसके ख़िलाफ़ हो गया था.
जब अपोलो 17 मिशन के ज़रिए जीन सर्नन और हैरिशन श्मिट चांद पर पहुंच कर चहलक़दमी कर रहे थे, तब क़रीब 60 फ़ीसदी अमरीकियों का ये मानना था कि उनकी सरकार अंतरिक्ष के क्षेत्र में कुछ ज़्यादा ही रक़म ख़र्च कर रही है. तब तक अमरीकी सरकार ने नासा का बजट बहुत घटा दिया था और बाक़ी के मून मिशन भी रद्द कर दिए गए थे.
ये एक मिथक ही है कि नासा के अपोलो मिशन को राष्ट्रीय गौरव माना जाता था और इसे अमरीकी जनता का पूरा समर्थन हासिल था. उस दौर के इन सर्वे को माना जाए, तो हम इस नतीजे पर पहुंचते हैं कि औसत अमरीकी नागरिक चाहते थे कि अंतरिक्ष मिशन के बजाय उनके टैक्स का पैसा दूसरे ज़रूरी कामों में ख़र्च किया जाए.
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इमेज कॉपीरइटNASAचांद पर जाने वाले अंतरिक्ष यात्रियों के सूट
जब नासा इंसान को चंद्रमा पर भेजने की योजना पर काम कर रहा था, तो एक बड़ी चुनौती, वहां जाने वालों के लिए ख़ास कपड़ों की डिज़ाइनिंग करना भी था. इन्हें स्पेससूट कहते हैं.
नासा के इंजीनियरों को ऐसे स्पेससूट बनाने थे, जो मज़बूत भी हों और आरामदेह भी. नासा ने स्पेससूट बनाने का ज़िम्मा, ब्रा बनाने वाली कंपनी इंटरनेशनल लैटेक्स कॉरपोरेशन को सौंपी थी.
हर स्पेससूट में कई परतें थीं, जो प्लास्टिक के रेशों, रबर और धातुओं के तारों से बनी थीं. इन सब के ऊपर टेफ्लॉन के बने कपड़े की परत चढ़ाई गई थी. इन स्पेससूट को ख़ास दर्ज़ियों ने हाथ से सिल कर तैयार किया था.
इन के साथ एक लाइफ़ सपोर्ट सिस्टम जोड़ा गया था. जिससे हर स्पेससूट अपने आप में एक अंतरिक्ष यान जैसा बन गया था. इसमें हर जोड़ को इतना लचीला बनाया गया था ताकि अंतरिक्ष यात्रियों को हाथ-पैर घुमाने में ज़रा भी परेशानी न हो. अपोलो मिशन के लिए तैयार किए गए स्पेससूट, नासा के जेमिनी मिशन से कई गुना बेहतर थे.
अपोलो 9 के अंतरिक्ष यात्री रस्टी श्वीकार्ट कहते हैं, “जेमिनी मिशन के लिए बनाए गए स्पेससूट आरामदेह नहीं थे. इन्हें पहन कर, अंतरिक्ष यान से बाहर का कोई काम नहीं किया जा सकता था.”
मार्च 1969 में जब रस्टी ने अंतरिक्ष में अपने स्पेसक्राफ़्ट से बाहर निकल कर थोड़ी देर वक़्त बिताया, तब उन्होंने इस नए स्पेससूट की अच्छाइयों और ख़ामियों को परखा. उस वक़्त वो धरती की कक्षा में ही थे.
उस दिन को याद करते हुए रस्टी कहते हैं, “स्पेसवॉक के दौरान मुझे अंतरिक्ष यान से आज़ादी मिल गई थी. मैं बस एक तार के ज़रिए अपने अंतरिक्ष यान के संपर्क में था, ताकि कहीं दूर न भटक जाऊं.”
“मेरे दोस्तों को चंद्रमा पर दूर तक चहलक़दमी करनी थी. ऐसे में वो अगर पुराने स्पेससूट पहनकर जाते तो अपने लूनर मॉड्यूल से ज़्यादा दूर नहीं जा सकते थे. इसीलिए नए स्पेससूट में स्वतंत्र रूप से बैकपैक लगाया गया था ताकि अंतरिक्षयात्री, यान से कुछ मील दूर भी जाएं, तो उन्हें कोई परेशानी न हो.”
बाद के स्पेससूट में और भी सुधार किया गया, ताकि वो चांद पर चलने वाले रोवर पर बैठ कर उसे चला सकें.
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इमेज कॉपीरइटNASAचांद पर उतरने वाले लैंडर की भारी क़ीमत
अपोलो 11 मिशन के रवाना होने से पहले उस वक़्त के अमरीकी राष्ट्रपति ने दो भाषण तैयार किए थे. एक तो मिशन क़ामयाब होने के लिए था और दूसरा इसलिए था कि अगर किसी वजह से चांद पर गए अंतरिक्ष यात्री धरती पर नहीं लौट पाते हैं, तब दिया जाएगा.
इस भाषण में लिखा था कि, 'ये क़िस्मत का लेखा था कि जो इंसान खोज के लिए चांद पर गए, वो अब हमेशा वहीं रहेंगे. उनकी आत्माएं हमेशा चांद पर ही रहेंगी. ये बहादुर इंसान नील आर्मस्ट्रॉन्ग और एडविन एल्ड्रिन जानते हैं कि उनकी वापसी की कोई उम्मीद नहीं है. लेकिन उन्हें ये भी पता है कि उनके इस बलिदान में मानवता के लिए एक उम्मीद छुपी है.'
अपोलो 11 से पहले किसी ने भी किसी और खगोलीय पिंड पर इंसानों को उतारने की मशीन नहीं बनाई थी और इस बात की तो कल्पना ही बेमानी थी कि वहां उतरने के बाद उनकी सुरक्षित वापसी का इंतज़ाम किया जाता.
इसीलिए, नासा ने चांद पर उतरने के लिए जो यान यानी लूनर मॉड्यूल बनाया था, वो अपनी पतली दीवारों और हल्के फ्रेम में मकड़ी जैसे पैर वाली कोई चीज़ मालूम होती थी, जो केवल अंतरिक्ष में काम कर सकती थी.
लूनर लैंडर में दो हिस्से थे. एक उतरने वाला हिस्सा, जिसमें चांद पर उतरने के लिए पैड बने थे और एक ऊपर उठने वाला हिस्सा. इसमें केवल एक इंजन था, जो अंतरिक्ष यात्रियों को वापस चांद की कक्षा में तैर रहे अंतरिक्ष यान से जोड़ता. यानी अगर किसी भी वजह से ये इंजन फ़ेल हो जाता, तो चंद्रमा पर गए लोगों को वापस धरती पर लाने का कोई और ज़रिया नहीं होता.
अपोलो 11 के फ्लाइट डायरेक्टर गेरी ग्रिफ़िन कहते हैं कि, 'पूरे मिशन में लूनर लैंडर ही ऐसी कड़ी थी, जिसका कोई विकल्प नहीं था. उस इंजन को काम करना ही था. अगर वो नाकाम होता, तो फिर खेल ख़त्म हो जाता. कोई दूसरा रास्ता नहीं था.'
नासा ने ग्रुमन कॉरपोरेशन नाम की कंपनी को लूनर लैंडर बनाने का ठेका दिया था. इसकी लागत क़रीब 38.8 करोड़ डॉलर थी. लेकिन, इससे बनाने में बहुत देर लगी और कई बार इसके ट्रायल को टालना पड़ा. लूनर लैंडर का पहला ट्रायल जनवरी 1968 में हुआ था.
एक साल के अंदर ही अपोलो 9 के अंतरिक्षयात्री जिम मैक्डिविट और रस्टी श्वीकार्ट ने अंतरिक्ष यान को धरती की कक्षा में ले जाने का कारनामा कर दिखाया. फिर, अपोलो 10 मिशन के दौरान टॉम स्टैफोर्ड और जीन सर्नन लैंडर को चांद की सतह के 47 हज़ार फुट यानी क़रीब 14 किलोमीटर पास तक ले गए. कमांड मॉड्यूल के पास वापस आने के दौरान सर्नन और स्टैफ़ोर्ड बहुत बडी मुश्किल में फंस गए थे.
लैंडर के नेविगेशन सिस्टम को चालू करने के लिए जब सर्नन और स्टैफोर्ड ने इसके स्विच ऑन किए और ऊपरी हिस्से को नीचे उतरने वाले हिस्से से अलग करना चाहा, तो एक स्विच ग़लत जगह पर लगी हुई थी. इसके बाद जब उन्होंने इंजन चालू किया, तो अंतरिक्ष यान बेक़ाबू हो गया.
सर्नन ने ज़ोर से एक गाली दी. उस मौक़े को याद करते हुए सर्नन ने बाद में बताया कि उन्होंने 15 सेकेंड के अंदर चांद की सतह को आठ अलग-अलग तरह से देखा. लेकिन, सर्नन ने कहा कि उनके पास डरने का भी वक़्त नहीं था.
ख़ुशक़िस्मती से स्टैफोर्ड ने लूनर लैंडर को मैनुअल तरीक़े से क़ाबू करते हुए स्थिर किया. बाद में इंजीनियरों ने अनुमान लगाया कि अगर दो सेकेंड की भी देर होती, तो लैंडर, चांद की सतह से टकरा गया होता.
सर्नन ने कहा कि, 'ये कमी हार्डवेयर की नहीं. ये ग़लती इंसानी थी. आप कितने भी क़ाबिल हों. कितना भी अभ्यास कर लें. ज़रा सी लापरवाही पूरे मिशन को तबाह कर सकती थी.'
जीन सर्नन ने उस घटना के दौरान क़रीब-क़रीब मौत के मुंह में समा गए थे. हालांकि बाद में उन्होंने गाली देने के लिए अमरीकी जनता से माफ़ी मांगी.
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इमेज कॉपीरइटGetty Imagesजब चांद पर जाने वालों ने वसूला बिल
जब नील आर्मस्ट्रॉन्ग, एडविन एल्ड्रिन और माइक कॉलिंस धरती पर लौटे, तो वो इस ग्रह के सबसे मशहूर प्राणी थे. लेकिन, इससे उनकी तनख़्वाहें नहीं बढ़ीं.
अपनी वरिष्ठता के हिसाब से नासा के अपोलो मिशन से जुड़े अंतरिक्षयात्रियों को हर साल 17 से 20 हज़ार डॉलर तक मिलते थे. आज की तारीख़ में ये रक़म एक लाख बीस हज़ार डॉलर होती है. अंतरिक्ष यात्रियों से ज़्यादा तो इस घटना को कवर करने वाले टीवी एंकर कमा रहे थे.
चांद पर जाने का जोखिम उठाने के बदले में एस्ट्रोनॉट को अलग से पैसे नहीं मिलते थे. हां, वो सफ़र का बिल ज़रूर वसूल कर सकते थे. इसीलिए एडविन एल्ड्रिन ने अपने घर से फ्लोरिडा होते हुए ह्यूस्टन के स्पेसक्राफ्ट सेंटर जाने का बिल 33.31 डॉलर वसूला था.
इसके अलावा अंतरिक्ष यात्रियों को नासा और लाइफ़ पत्रिका के बीच हुए समझौते से भी आमदनी का एक हिस्सा मिलता था.
स्पेस प्रोग्राम से अलग होने के बाद कई अंतरिक्ष यात्रियों को बड़ी कंपनियों में मोटी सैलरी पर नौकरी मिल गई थी. कई तो टीवी में गेस्ट बन कर जाने लगे. इसके अलावा उन्हें कई विज्ञापन करने को भी मिले थे.
जैसे कि अपोलो 7 मिशन के दौरान ज़ुकाम के शिकार हुए वैली शिरा बाद में बंद नाक खोलने वाली दवा के ब्रैंड एंबेसडर बन गए. इसी तरह बज़ एल्ड्रिन ने बीमा, कार और ओट्स के विज्ञुन किए. आज भी उनकी आमदनी 1969 मे होने वाली कमाई से ज़्यादा है.
(मूल लेख अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिककरें, जो बीबीसी फ्यूचरपर उपलब्ध है.)
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